स्लेट पर क्या लिखा है जो मिटता नहीं

पुराने हो गए हैं स्लेट मेरे,
किनारे की लकड़ी अब टूटने लगी है.
अक्षर अब इस पर पूरी तरह नहीं मिटते 
अधमिटे आपस में झगडा करते हैं. 
किसी के भवें तनी हुई लगती,
तो कोई अधूरा शब्द पूरा प्रतीक नहीं बन पाता
कोई ज्यादा जगह लेता तो कोई दब्बू सा किसी कोने में बैठा संकोच करता है.  
फिर भी, बारहा इस पर कोई ना कोई शब्द लिख देता हूँ.

महसूस होता है कि सिकुड़ता जा रहा हूँ दिन - ब-दिन
माँ बड़े सुन्दर पत्ते बनाती थी इसपर 
पत्ते हरे होकर मुस्काने लगते थे,
और तब मेरी माँ इसमें डंठल लगा दिया करती
लकीरें गाढ़ा करते वक़्त माँ की चूड़ी बजने लगती थी.

कोई हाथ पकड़ कर कोई नया शब्द सिखा, बाल झिंझोर जाता 
और जब पहली बार जब 
उस छोटी फ़्रोक वाली लड़की का नाम लिखा तो
आँखों का मुस्काना देखा था.

स्लेट पर क्या लिखा है जो मिटता नहीं ?
छुप कर चोक आज भी खाता हूँ तो 
उस सांवली जाँघों वाली लड़की का नमकीन स्वाद आता है.

गणित सीखने में हिसाबों कि गड़बड़ी भी यही से शुरू हुई थी.
दोस्तों को प्लस वन (+1+1...)  कर कर के गिनता था.
आखिरकार 'भूलना',  भी इसी ने बताया.

स्लेट को बचाने में जिसने योग दिया 
काश ! वे उन पर लिखे गए सारे शब्दों की महत्ता भी बचा पाते.

स्लेट की पृष्ठभूमि में बसे अक्षर अक्सर हमारे चेहरे होते हैं.

13 टिप्पणियाँ:

डॉ .अनुराग said...

पूरी की पूरी शानदार है बस एक आध जुमला एंवे ही ले लिया है (आदतन ..बुरी सोहबत रही होग बचपन में )...दर्पण से कहता हूँ इस आदमी को हिलायो तो भी कितने शब्द नीचे गिरेगे .साला डिक्शनरी की माफिक है !

Manoj K said...

great symbolisation, add me in your fan-list

sonal said...

कहाँ से लाकर कहाँ छोड़ा है ... कविता पढ़ते हुए कभी हांथो में चाक के लगे होने का रेतीला एहसास हुआ ... यादों की गलियों की सैर बढ़िया रही

रश्मि प्रभा... said...

स्लेट पर क्या लिखा है जो मिटता नहीं ?
छुप कर चोक आज भी खाता हूँ तो
उस सांवली जाँघों वाली लड़की का नमकीन स्वाद आता है... bahut sundar

मनोज कुमार said...

महसूस होता है कि सिकुड़ता जा रहा हूँ दिन - ब-दिन
माँ बड़े सुन्दर पत्ते बनाती थी इसपर
पत्ते हरे होकर मुस्काने लगते थे,
और तब मेरी माँ इसमें डंठल लगा दिया करती
लकीरें गाढ़ा करते वक़्त माँ की चूड़ी बजने लगती थी.
पूरी कविता ज़िन्दगी के ऐसे दौड़ का अहसास कराती है जहां सीखने से ज़्यादा सिखाने वाले महत्वपूर्ण हुआ करते थे।

crazy devil said...

pehle kuch lines to bilkul gazzab hain

richa said...

स्लेट की पृष्ठभूमि में बसे अक्षर अक्सर हमारे चेहरे होते हैं.

कमाल की लेखनी पायी है साग़र... कैसे निर्जीव सी दिखने वाली चीज़ों में यूँ जान फूँक देते हैं आप ?

vandana gupta said...

स्लेट की पृष्ठभूमि में बसे अक्षर अक्सर हमारे चेहरे होते हैं.
यही सत्य है………………सत्य ऐसा ही बेबाक होता है।

रवि कुमार said...

कोई अधूरा शब्द पूरा प्रतीक नहीं बन पाता
कोई ज्यादा जगह लेता तो कोई दब्बू सा किसी कोने में बैठा संकोच करता है...

क्या बात है...

Puja Upadhyay said...

जाने कैसे तो भूल गए हो, स्लेट जब बहुत इस्तेमाल हो जाती थी...उसे धोना पड़ता था पानी से और धूप में सुखाना पड़ता था.
अश्कों से थोड़ा भिगाओ अपनी स्लेट को और पुराने अक्षर प्यार से पोंछ डालो...देखो कैसे नयी सी जिंदगी स्लेट पर आकार लेने लगेगी.

***Punam*** said...

"अक्षर अब इस पर पूरी तरह नहीं मिटते
अधमिटे आपस में झगडा करते हैं.
किसी के भवें तनी हुई लगती,
तो कोई अधूरा शब्द पूरा प्रतीक नहीं बन पाता
कोई ज्यादा जगह लेता तो कोई दब्बू सा किसी कोने में बैठा संकोच करता है."

ए काश कि ऐसा हो जाता..
किनारे से टूटी वो स्लेट
मिल जाती कहीं
किसी कोने में घर के...
और हम फिर से कुछ
लिख पाते उस पर
उल्टा-सीधा !
एक बार
बचपन के एहसास को
जी पाते हम
फिर से दुबारा !!

vandana khanna said...

............

vandana khanna said...

हाँ तो... माँ की चूड़ी जब स्लेट पर बजती थी तो कितनी प्यारी आवाज आती थी........ये lines पढ़ते हुए वो आवाज़ मन में बजने लगी...